गुरुवार

एक शीर्षक दें

यह सिर्फ एक कहानी है ... इसके कोई पात्र आपके ज़िन्दगी में दिख जायं तो उन पर ऊँगली उठाने की जरुरत नहीं है बस उनको देखिये और मुस्कुरा दीजिये ... बस इतना ही... उन्हें पहचानने की कोशिश उनकी जिंदगी को तबाह कर सकती है ... आप सिर्फ कहानी पढ़िये और मज़ा लीजिये ... वैसे एक बात बता दूं की यह सिर्फ एक कहानी है ... कल्पना पर आधारित ... सच से कोई सामना नहीं ! तो शुरू करता हूँ एक विचित्र शहर की कहानी ...


इस शहर में सब कुछ है बिलकुल दुसरे शहरो की तरह ... गांधी के नाम पर मैदान है ... एक नदी है जिसे इस शहर के लोग गंगा के नाम से जानते है और यहाँ भी यह नदी शहर के बाहर बहती है
यहाँ भी एक गोल घर है ... एक चिड़ियाँ खाना है ... अखवारों के दफ्तर है ... टीवी चैनल्स के भी ऑफिस है ... जब यह सब है तो लोकल चैनल भी हैं और तभी यह कहानी है ! लोकल चैनल ने टीवी में नौकरी पाने के लिए फ्रेशर लड़कियों के सपने को गहरा कर दिया ... सपने को सच करने का दावा करने वाले लोकल चैनल के बॉस के चैंबर में बेड बिछवा दिया ! हाय रे शहर ... विचित्र शहर के कामुक और दिल फेंक सम्पादक की तो चांदी ... हरेक दिन चादर से लेकर सब बदलने की तैयारी ... भलमचस प्रोडक्शन के बैनर तले ... सबसे पहला ... सबसे आगे ... विचित्र न्यूज़ ... देखना ना भूलें .... चेंबर में बोतल ... खनका ग्लास.. चूडियो की चनक ने बहार ला दिया वीटी ने बिना बनियान के शर्ट को खूंटी पे टांगी और ....
अगले दिन विचित्र चैनल के ऑफिस का नज़ारा बदल गया ... मैडम ... मैडम अब बॉस हो गयी ... कुछ भी करना है मैडम से पूछो ... मैडम भी खुश ... रातो रात मैडम का हुलिया बदल गया ... जींस टॉप ... कभी कभी तो इतना छोटा की अन्दर की बात भी सामने आ जय !

सम्पादक ने नया तरीका अब अपना लिया खुद तो चैंबर में बैठता रहा और काम सिखने आने वालियों को विचित्र न्यूज़ के दफ्तर में ... मौक़ा मिला की वालिओ की ट्रेनिग शुरू ... कपडे ऐसे नहीं ऐसे पहनना चाहिए ... ये तुम्हारे टॉप ठीक नहीं है ... खुद को एक्सपोज करो लोग देखे तो देखते रह जाय ... उफ़ क्या क्या नहीं कहता और धीरे धीरे उनके कपड़ो पर सम्पादक की हाथ ... बुरा मत सोचो .. यह तो तुम्हारी भलाई के लिए कर रहा हूँ ... मेरे पास आज ही विचित्र राज्य के बड़े चैनल के बड़े अधिकारी का फोन आया था ... सब बात हो गयी है ... तुम्हारी नौकरी पक्की ... इधर आओ ... हाथ देखे ... लकीरे काफी गहरी है बहुत ऊपर जाओगी ... !

सांझ ढलने वाली थी और सम्पादक उस दिन खुद ही चैंबर से निकल कर न्यूज़ के दफ्तर में आ गया ... फलां कहाँ है ... चपरासी ने सलाम बजाय और कहा मैडम त उपरे हथी ... मेकप करेला गेल्थिन हे ... संपादक चुचाप ऊपर पहुँच गया ... टूटे शीशे में खुद को निहार रही उस बाला को उसने पत्रकार बना दिया ... पत्रकार बन जब वह नीचे आयी और न्यूज़ पढ़ने के लिए कैमरे के सामने गयी तो बरबस कैमरामैन ने पूछ लिया तबियत ठीक नहीं है क्या ... कोई बात नहीं सम्पादक सर को खबर करते है अपनी गाड़ी से घर छोड़ देंगे ... न्यूज़ के बाद सम्पादक आनन् फानन में स्टूडियो पहुंचा कंधे पर हाथ रखा ... हौले हौले गाडी तक ले गया और गाडी चल पड़ी ... विचित्र शहर की सडको पर दौर पड़ी गाडी ... गाडी में वादे .. कसमे ... और गले में सोने की चेन डालकर गन्धर्व बंधन में उसे ले लिया गया ... तबियत विश्वास के आगे ठीक हो गयी और विचित्र देश में यह सब ... किसी को पता नहीं चला


विचित्र देश के इस शहर में बड़े पत्रकार जब भी आते सम्पादक तीन तेरह कर अपने चेंबर में लाने में सफल हो जाता ... फिर यह चेंबर मयखाना बन जाता ... धुएं और शराब की गंध की खुशबू ऐसी बिखरती की गेस्ट चारोखाने चित्त... शुरुर चढ़ता और सम्पादक डाला की भूमिका में आ जाता ... क्या चाहिए ... अरे नया है ... अभी तो पत्रकार बनाया है ... अपने यहाँ दिल्ली ले जाइए ... जबतक मन करे रखिये और फिर मेरे पास वापस .... ठीक उसी समय मोबाइल की घंटी सम्पादक की बज उठी .... हेल्यु ... अरे तुन .... चूम चूम .. मच मच ... मै तुम्हारे बारे में सोच रहा था सुनो अभी निकल सकती हो सिंह जी है दिल्ली के कौन नहीं जानता ... पी एम भी बुलाते है ... ब्लाक चौराहे पर होटल में आ जाओ ... रूम नंबर ... 0000 समझ गयी ना .. अभी इंटरविउ होगा ... और दल्ल्ला की भूमिका से सम्पादक भडुवा बन जाता !कितनो की सेज सजाई ... कितनो का अबोर्सन कराया ... पर आज भी सम्पादक वैसे ही है


अब विचित्र शहर में एक और चीज है ... यहाँ खेल के लिए स्टेडियम है और वहां एक मोहल्ला भी है ... लड़की दिल्ली ... चारमिनार घूम कर छुट्टियों में आयी ... संपादक ने लड़की को दोस्त से मिलाने स्टेडियम इलाके में लाया .. दोस्त को बहार निगरानी में रख्खा ... और उसे मां बना दिया ! फिर अबोर्सन ... अबोर्सन ... उफ़ विचित्र शहर में ये क्या हो रहा है ... सम्पादक ... खुश है की उसने ... कमीना गिरी की हद पार कर लिया है !

सम्पादक सम्पादक था अब उसके मातहत समझ गए ... लडकी आये ... सम्पादक ने बुला लिया ... मातहत ने लड़की को काम से निकाल दिया ... लडकी काम करती रही पर सम्पादक ने पैसे इस लिए नहीं दिया की यह सेज पर बिछने को तैयार नहीं थी ... सम्पादक आज भी है ... उसका चेहरा देखिये ... बेशर्मी झलकती है ... भडुवा गिरी टपकता है .. आज भी विचित्र देश में यह ज़िंदा है पूछना है तो शमशान में जाकर उनसे पूछिए जो इसके चक्क्कर में आकर अपनी जान से हाथ धो बैठी ... मुझे लगता है इससे अधिक लिखने पर लडकियों की पहचान हो जायेगी ... इतना तक में लडकियों की आत्मा को शांति मिलेगी !


जय हो

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