शनिवार

एक शीर्षक दें - पार्ट टू

जय हो




तमाम बाते ... तमाम आरोप ... बावजूद विचित्र शहर का यह सम्पादक आज भी वही कर रहा है ... वही सोच रहा है ... जिसे सभ्य समाज में गलत माना जाता है ! आज भी उसकी सोच में लडकी ... कामुकता ... शराब ... मोबाइल पर चिकनी चुपड़ी बातें ... ज़िन्दगी का हिस्सा है ! थोडा भी अफ़सोस नहीं कि गांधी के देश में औरत और लडकी सम्मान में सबसे ऊपर हैं ... राह चलती हर औरत इस सम्पादक के जेहन में वेश्या है या बदचलन है जिसे पैसो के बल पर ... धोखे में रख कर ... यह पाना चाहता है ! साफ़ कपड़ो में रहने वाला यह सम्पादक विचित्र शहर के नामी गिरामी के साथ अपनी इज्ज़त बचाने में लगा रहता तो कई बार उनके नाम पर दलाली कर लेता ! गाडी पर प्रेस का मुहर लगा कर चलने वाला यह सम्पादक कितना नापाक है ... उसके इरादे कितने खौफनाक है कि उस विचित्र न्यूज़ में काम करने वाली उन लड़कियों से पूछिए जिसने चप्पल भी इस पर तान लिया था ! अपनी बेटी की उम्र की लड़कियों से इश्क फरमाने वाला यह सम्पादक सच पूछिए तो पत्रकारिता के नाम पर कोढ़ है !



अब कहानी ... बारिश पूरी जवानी पर थी ... रह रह कर मेघ के गर्जन ... और हवाओं की तेज़ लपट से कोई घर से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था ... बावजूद पत्रकारिता के जूनून में वह घर से निकली ... विचित्र न्यूज़ के दफ्तर पहुंची ... सुबह के सात बजे थे ... दरवाजे पर चपरासी खड़ा था .... लडकी पूरी तरह भींग चुकी थी ... हाथ में छाता के बावजूद वारिश के बूंदों ने उसे कहीं नहीं छोड़ा था ... चपरासी ने कहा -बौवा भींग गेलः कोई बात ना उपरे वाला रूम में चल जा पंखा चला के कपड़ा सुखा लिह ... कोई अय्थिन त बता देबूवा...!चपरासी का अपनापन ने भींगी लडकी को रहत दी और वह विचित्र न्यूज़ के पहले तल्ले पर बने एक मात्र कमरे में चली गयी और पंखा चलाकर बैठ गयी !



रह रह कर बादलो की गडगडाहट ... तेज़ धार ... पूरा विचित्र शहर पानी पानी हो गया था... सड़के पानी पानी .... सड़को पर सन्नाटा ... लडकी कमरे में बैठे सोचने लगी ... नहीं आना चाहिए .... इतनी बारिश पता नहीं कोई आयेगा भी नहीं ... शायद न्यूज़ नहीं चलेगा ... फालतू आ गयी ... अच्छा बारिश रुकते ही घर चली जायेगी ! वह उठकर कमरे में टहलने लगी ... शीशा ... खुद को निहारने लगी ... चलो अभी स्ट्रगल का दौर है ... एक दिन ... टीवी पर वह न्यूज़ पढ़ेगी ... पूरा देश उसे पहचानेगा पी एम से सी एम तक ... और तभी सम्पादक की गाडी आकर रुकी ... चपरासी दौड़ा ... जी हजूर आ गेल्थिन ... ! और कौन कौन आया है ... आज न्यूज़ नहीं चलेगा क्या ... सुर्खियाँ के लिए एंकर कौन है .... चपरासी ने कहा जी हजुर , एंकर बौवा त आयल हथिन ... वारिश में भींग गेल्थिन हे बेचारी ... उपरे वाला कमरा में कपड़ा सुख्वीत हथिन ... बुला दियो का हजूर...?



विषैले विषधर की तरह सम्पादक की आँखे चमक गयी ... मन में कामुकता का उन्माद छाने लगा ... उसके अन्दर का राक्षस फुंफकार मारने लगा ... चेहरे की कुटिलता को चपरासी नहीं समझ पाया ...सम्पादक ने चपरासी को सौ रूपये निकाल कर दिए और विचित्र शहर के रेल स्टेशन के पास जाकर मंदिर के पास से फूल लाने को कहा ... चपरासी निकल गया ... मौक़ा ... फिर नहीं मिलेगा ऐसा मौक़ा ... मौक़ा पे मौक़ा ... दबे पाऊँ ... शातिर चीते की तरह झपट्टा मारने ... सीधे ऊपर पहुँच गया ... अरे राम ... लडकी अकेली ... सम्पादक ने बिना कुछ कहे उसे अपने आगोश में लेने की कोशिश की लडकी सन्न रह गयी ... जोरदार ... पूरी ताकत से दे दिया एक तमाचा ... सटाक की आवाज़ गूंज गयी ...! न्यूज़ कैंसिल ... सम्पादक ने ... चेहरे को सहलाते कहा - मै तो दोस्ती करना चाहता था ... तुम गलत समझ गयी ... लडकी रणचंडी बन गयी ... दांत पिसते बोली ... दोस्त अपनी बेटी को बनाओ ... उस दिन और आज का दिन ... आज भी कसक है सम्पादक के सीने में... वो मेरी नहीं हो पायी... कई बार उस लडकी को फोन भी किया पर मामला फिट नहीं बैठा ... लडकी खुद्दार थी ... और आज भी है !



यह सिर्फ एक घटना नहीं ... एक कल्पना है सम्पादक के करतूतों का ... वह क्या कर सकता है उसकी एक बानगी है ! मानस पटल पर सम्पादक को लेकर जितनी दरिंदगी हो सकती है ... वो कर सकता है आज सोच रहा हूँ ... उसके चेहरे पर ... कुटिलता के साथ मासूमियत ... सम्पादक ... कामुकता में अँधा हो जाता था ... उस दिन तो उसने हद कर दी ... विचित्र शहर के सबसे फेमस गर्ल्स कालेज की पत्रकारिता की छात्रा का जन्म दिन मनाया और फिर छी छी ...! कभी कोई अपराध बोध नहीं ... एक नहीं कई कहानियां ... अब तो शर्म भी उसको आती नहीं ... विचित्र शहर का यह सम्पादक ... आज भी इसी फिराक में रहता है... और उसे इस अपराध में सहयोग काल भैरब भी करते है ... !



अगले अंक में पढ़ियेगा ... स्कूटी ... लोन ... और निशा







जय हो