मंगलवार

एक शीर्षक दें... पार्ट थ्री

जय हो




वी टी यानी विचित्र शहर के सम्पादक के लिए दुनिया बहुत ही छोटी है ... जैसे ... उसे बड़ा विस्तरा चाहिए ... दोनों ओर... सुरा और सुंदरी ... वह भी सुडौल ... बोतलें भी बड़ी चाहिए बिलकुल ... सामंता की तरह ... यह भी अपना चेहरा बड़ा रखता है ... इदी अमीन की तरह ... यह बिस्तर पर उन फ्रेशर्स से सलूक भी उसी तरह करना चाहता है ... और यह सब वह इसीलिए करना चाहता है ताकि विचित्र शहर में वह अपने आपको शैतान साबित कर सके ! अक्सरहां रात को ओवर कोर्ट और चेहरे पर तिरछी टोपी डाल सिगरेट का कश लगाता हुआ घूमता है ... झूठी कहानी सुनाना शगल है... अपने कुकृत्यों को सुनाने के लिए पार्टियां दिया करता है ... और उस पार्टी में अपने नए कुकर्म का बखान करता है... जैसे उसने एक जंग जीत ली हो ... धंधा और धन्धेवाज़ उसके साथी है ... वो भी इसी तरह की कहानी सुनाकर वेताल पचीसी दिखाते हैं ... यह सब विचित्र शहर के आई टी ओ की पास होता है ... आपको बता दूं इस विचित्र शहर में एक आई टी ओ भी है और इसी आई टी ओ से ब्लोक की तरफ जाने वाली सड़क पर यह वह सब कर चुका है जिसे मानव समाज में हैवानियत कहा जाता है !

बहरहाल अब कहानी ... पार्ट थ्री !



विचित्र शहर ... विचित्र सम्पादक ... विचित्र दुनिया ... दुनिया ऐसी की जिसमे सिर्फ जिस्म और धोखा बिकता है .... खरीददार भी है ... उन खरीदारों में मुंहमांगी कीमत लगाने वाला यह सम्पादक भी है !अचरज की बात है की इस सम्पादक ने आज भी बनियान पहनने की आदत नहीं डाली ... और तो और वह ... वह वो भी नहीं पहनता है ... वजह सबको मालूम है ... दिक्कत नहीं ... आराम से सबकुछ .... आप यह सोच रहें होंगे की मै इतना कैसे जानता हूँ ... तो सच यह है की यह एक कल्पना है ... उस बधस्थल की कल्पना है ... जहाँ से लौटने के लिए अस्मत गवानी पड़ती है ... सिर्फ यह कहानी है ... इस कहानी के पात्रो को पहचानने की कोशिश नहीं होनी चाहिए ! यह निवेदन है पर आपका मन नहीं माने तो किसी भी ऐसे पुरुष को अपने मानस पटल पर लाइए और उसे कहानी का पत्र बना कर पढ़िये और मज़ा लीजिये ... वह मज़ा नहीं जो सम्पादक लेता है ... शर्मिंदगी का मज़ा ... यह तो सिर्फ आइना दिखाने की कोशिश भर है ताकि कोई इस लाइव समाज में ऐसा करने की जुरर्त ना करे !



क्षमा ... कहानी से भटक गया था !मेरा सम्पादक कविताएं भी लिखता है ... दूसरों के चोरी का ... शब्दों का हेरफेर में माहिर है... इस मामले में वह अपने को रोबिन हुड मानता है ... आप पकड़ लिए तो ठीक नहीं तो वाहवाही दीजिये ... तुम्हारे गेसू ... तुम्हारी अचकन ... दो बूंद ... बस इतना ही ! असल में कवि बनाना तो मजबूरी थी इससे फ्रेशर ... जाती है ... ऊपर का असर है ! बात बनती गयी और सम्पादक... का व्यवसाय बढ़ता गया ... कभी मो....तिहारी ... कभी ... रां... ची.... खेल चालु आहे ....!विचित्र न्यूज़ का दफ्तर तो फ्रेशर की कबूतार्वाजी के लिए फेमस हो गया ... दोस्त आते ... पैमाना ... खनकता रहा ! पर बात उस दिन बिगड़ गयी... !



यह फ्रेशर नहीं थी ... यह तो पहले से ही तेज़ थी ... सम्पादक की नब्ज पकड़ चुकी थी ... एंकर आते ही बन गयी ... विचित्र शहर के लोंगो ने विचित्र न्यूज़ में देखा ... क्या बात है हो सम्पादकवा त फिरो ले आयल ... अच्छा त अबकी इहे इनकर सब खेल बिगाड़ी .... जाय द ... छुछुन्नर बा ...!सचमुच खेल की शुरुवात हो गयी थी ! न्यूज़ पढ़ाने से पहले सम्पादक के चैंबर .... चैंबर अन्दर से बंद ... घंटो बाद निकलती तो सम्पादक के चेहरे पर तेज़ ... आखों में नशा ... एंकर भी मस्त ! सम्पादक ज़िन्दगी को बूंद बूंद जी रहा था ... और एंकर ... उसके तिजोरी से बूंद बूंद निकाल रही थी ... दोनों खुश ... पर जल रहा था कहीं ... किसी के सिने में ... वह कोई एंकर का प्रेमी नहीं ... वह तो सम्पादक की गन्धर्व बंधन की स्वामिनी थी ... धधक रहा था उसके कलेजे में ... ! पर सम्पादक तो नयी ज़िन्दगी के रस का आनंद में डूबा हुआ था ... अब किसकी चिंता ... जब तक एंकर है तभी तक ज़िन्दगी का मज़ा है ... पहले प्यार ... अब .... कहीं एंकर छिटक गयी तो ... और एक दिन सम्पादक ने फोन किया .... हेल्यु ... कहाँ हैं आप जी ... आपका तो फोन नहीं आता है तो .... समझ नहीं पाएंगी .... क्या पापा ... अच्छा ... कोई बात नहीं ... कब लेना है स्कूटी ... नहीं जी ... हेल्यु ... मै सुन रहा हूँ ... बाज़ार से क्यों जी ... लोन मै दे दूंगा ... पक्का... बिलीव करियें ... चु चु चु ... मच मच ... हेल्यु ... कल सुबह ही आइये ... छछूंदर की तरह आवाज़ ने वहाँ लोंगो को चौंका दिया ... अरे ...देख त छुछुन्नर कहबा से आगैल ह ... देख रे देख बहते छुछुवा ता.. ! सम्पादक चैंबर से बाहर निकला ... छ्छुन्नर की आवाज़ बंद ... साफे बंद ... नौकर भी समझ गया ... सम्पादकवा आवाज़ निकालत रहे ... रे छोड़ ... कब सुधरी पते नइखे ... जाय दे !

तीखी धुप विचित्र शहर के लोग घरो में दुबके थे और सम्पादक स्कूटी के लिए एंकर को चैंबर में लों दे रहा था ... फ़ाइल पर साइन किया और एवज में तीस हज़ार ... अच्छी कीमत लगाईं सम्पादक ने ... स्कूटी आ गया ... पर स्कूटी की पार्टी ... खेल शुरू ... एंकर गायब ... चौबीस घंटे से गायब ... सम्पादक भी गायब ... स्कूटी भी गायब ... विचित्र न्यूज़ में हडकंप ... माँ पापा दोनों ने विचित्र न्यूज़ के ऑफिस में ... लाओ लाओ मेरी बेटी कहाँ है ... कहाँ है सम्पादकवा ... लों काहे दिया ... स्कूटी काहे दिया ... संपादक बनता है घुसारे देंगे ...! बोलती बंद ... घिघ्घी बंध गयी मातहतो की ... अब का होगा हो ... इ सा ...ऐसा करता है की लगता है हम सब दलाले है का ... ऐ सर ... ठीके बात है ... चुप ... बोलिहो भी मत अभिये बाप महतारी फाड़ देगा ! पर सम्पादक असर विहीन ... रसप्यार में डूबा ...! अगले दिन ... सुबह के दस बजे ... एंकर अस्त व्यस्त विचित्र न्यूज़ के दफ्तर में आती है ... मेकप रूम में घुस जाती है ... फिर निकली चेहरे पर सुकून .. गर्वीला गर्दन तन गया ... मातहतो को देखि मुस्क्रुराई ... स्कूटी से चल दी ... आज भी एंकर आपको स्कूटी से विचित्र न्यूज़ में दिख जायेगी !

जय हो