रविवार

दलाली संस्कृति ही सबसे आगे

जय हो

सच का सामना करना कठिन ही नहीं मुश्किल भी है ! बिडले ही होते हैं जो सच का सामना करने का जोखिम उठाते है ! पर सच का एक बार सामना कर लेने के बाद जिंदगी जीने की कला से आप परिचित हो जाते है ! आज एक सच से रुबरु कराने का जोखिम मै ले रहा हूँ ! आपको बताना चाहूँगा कि पटना में एक प्रेस क्लब की बात बिहार के मुख्यमंत्री ने की और उसके बाद पटना के पत्रकारों के बीच तूफ़ान उठ खड़ा हो गया ! हर शख्स इस प्रेस क्लब पर काबिज होने के लिए रणनीति बनाने लग गया ! कोई स्वयंभू अध्यक्ष बन गया तो कोई सचिव तो कोई अपनी सामर्थ्य के हिसाब से गोटी बिठाने लगा कि कैसे काबिज हुआ जाय ! एक सच के साथ एक ग्रुप बनाया गया जिसमे चुनिन्दा पत्रकार शामिल थे , एक ट्रस्ट बनाकर सामने आये और ऐलान किया किया प्रेस क्लब बनायेंगे और पत्रकारों के कल्याण की बात करेंगे ! अब इनका मकसद जो भी हो पर इन्होने कदम उठाया और प्रेस क्लब की नीव रख दी ! जगह तय हो गया ... सरकार ने मान भी लिया और लगभग फाइनल हो गया की पहली बार पटना प्रेस क्लब बन जाएगा !
यह मै मानता हूँ कि ट्रस्ट बनाने के समय जाति... गुटवाजी को तरजीह दी गयी ... हो सकता है .... सब दूध की तरह सफ़ेद नहीं हो सकते है !गलतियां तो इन्सान से ही होती है और हो गयी ... पर इसके लिए कितना बवाल हुआ ... बाबा रे पहली बार लगा कि पटना के पत्रकारों के भीतर का जंगल राज़ सामने आ गया ! तन गए सब ... क्या नहीं हुआ ... माँ बहन तक की गालियाँ ... सिर्फ ठाय ठुएँ नहीं हुआ ! बड़ी बदनामी हुई ... ब्लॉग खोले गए ... दो गुट हो गए ... एक दुसरे के खिलाफ मामले तलाशे जाने लगे ! आप को मालूम है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ ? मै बताता हूँ ! दरअसल इस ट्रस्ट में पटना के स्यंभू बड़े पत्रकार कन्हैया भेलाड़ी जी को इससे दूर रख नए इनरजेतिक पत्रकारों ने कमान सम्हाला था ! किसी को नहीं पचा ! इवन गंगा प्रसाद , नलिन वर्मा सहित सारे सीनियर खिलाफ थे ! शुभाष पाण्डेय ने तो अपने अखबार में लिख तक दिया ! खैर , यह तो पुरानी बात हो गयी !
अब इस घटना के एक साल बीत गया ! बाद में अरुण अशेष के नेतृत्व में कमिटी बनी और तय हुआ कि पहले पत्रकारों का रजिस्ट्रेसन हो जाय ! शर्तें राखी गयी तो इसमें भी विवाद ... नए विडियो रेपोटर को इससे दूर कर दिया गया ! तब भी लोंगो ने फ़ार्म भर कर अपना रजिस्ट्रेशन कराया ! लेकिन मामला वही ढाकके तीन पात ! तहकीकात करने के बाद पता चला कि जब कुछ लोंगो को लग गया कि इस प्रेस क्लब में दाल नहीं गलने वाली है तो सी एम को समझा दिया गया कि ऐसे में पत्रकार चुनावी साल के कारण विरोध कर सकते है ! यानी यही से शुरू हो गया दलाली संस्कृति ! दरबार तक पहुँच गए पटना के पत्रकार और लगा दिया बाट प्रेस क्लब पर ! ये वही लोग हैं जो शुरू से नहीं चाहते थे कि पटना में प्रेस क्लब बने ! इन्हें तो लगा कि प्रेस क्लब बन गया तो सत्ता उनके हाथ से चली जायेगी ! न्यू कमर के हाथ सत्ता ... बैठके हुई ... टीचर से लेकर बोद्का तक की पार्टी चली तो बिना पेंदी के लोटा पत्रकार अपने अपने अखबार के मेंबर का लिस्ट लेकर घुमने लगे ! तो कोई पत्रकारों को अपने दफ्तर में बुलाकर लड़कियों से मिलवाने लगा कि आप अध्यक्ष और फलांना सचिव ! हर किसी ने जो किया प्रेस क्लब के लिए उसे नए जेनरेसन के पत्रकार माफ़ नहीं करेंगे ! ख़ास कर सी एम के दरवारी को तो चिन्हित कर लिया गया है !
अब सवाल है कि ये दल्ला लोग कब सुधरेंगे ! तो मेरे विश्लेषण यह कहता है कि दरबारी होने के लिए जो अपनी रीढ़ कि हड्डी को भूल सकता है ऐसे बेशरम से तो बेहतर है कि नहीं बने प्रेस क्लब !

जय हो